Wednesday, July 30, 2008

Speed

If there is scope, and you still don’t feel like changing the gear to overtake, there is something wrong with you. I know this, because something was wrong with me today, and strangely I didn’t feel like overtaking or over-speeding at all. One could argue – that’s no basis for the converse to be true too. But then didn’t I just tell you, something’s wrong.

Wednesday, July 23, 2008

Naukri and all

The long lazy holidays are drawing to a close. In some days, the placid afternoons I spend surfing the internet will be replaced by frantic placements activity. I just hope I get a decent job, most importantly because only getting a job will get my mind off getting a job. Belonging to quite an unenviable branch - Production and Industrial, in my case - has its own advantages. Most of us are conditioned to settle for less, not cry grouses at losing a fancy opportunity, knowing fully well that if it was so fancy, it wasn't meant for us in the first place. Among us, a major chunk gets placed in the first week itself because that's when the mass recruiters, who have a reputation for picking up every Tom, Dick and Harry (TDH), recruit. Personally, being no-topper at my no-great branch, the TDH offers are all that appear to be in reach, even if not comfortable reach, but yeah, reach nonetheless. This brings my mind to a widespread delusion that I see has inextricably become part of the archetypal I.I.T.(+) aspirant's thought-process (You know what the '+' stands for fully well). Having gone through the ordeal myself, I advise every one of them to go for the field they would love to go for, before the college they may pride themselves on going to.

Other than that, there's not much to write home about. Wait, I have some things to say about the Lok Sabha Debate, a couple of things about CAT and stuff, still some things about friends, and maybe I'd even want to sneak a few paragraphs about the latest movies I've seen - because I've seen quite a few lately, around 30 in the last 30 days. Just the thought of writing so much renders me too tired to try, so that's it.

Friday, July 4, 2008

हमारी मातृभाषा

बहुत दिनों से सोच रहा था की हिन्दी भाषा में कुछ लिखू। एक हिन्दी भाषी होने के नाते मुझे आभास होता रहता की मेरा कर्तव्य है की यदा-कदा ही सही मैं हिन्दी में लिखूं अवश्य। बस इसी उधेड़बुन में था की बरसो से हिन्दी छोड़ चुका मैं, क्या इस से न्याय कर पाउँगा ? फ़िर सोचता, की क्या रखा है इस न्याय आदि के आडम्बर में, प्रयत्न तो किया जाए। इसी बीच अमिताभ के ब्लॉग पर हिन्दी में एक लेख देख कर मेरा निश्चय ओर सशक्त हो गया।

हिन्दी की बात चली है तो सोचता हूँ अब इसी विषय पर थोड़ा विचार विमर्श किया जाए । विद्यालय के दिनों में मेरी हिन्दी में बहुत रूचि रही। इसका श्रेय मेरे नवी कक्षा के अध्यापक श्रीमान डॉक्टर अशोक कुमार ‘लव’ को जाता है। हिन्दी के निबंध ओर कहानियो को बड़ी सूक्ष्मता से समझाते हुए वे पूरा ध्यान इस बात का भी रखते थे की इसके गूढ़ पहलुओं को नज़रंदाज़ न किया जाए। उनकी इस शैली से मैं बहुत प्रभावित हुआ। आज भी उन बीतें दिनों को याद करता हूँ तो एक मुस्कान मेरे चेहरे पर एकाएक आ जाती है। हमारे अध्यापक होने के साथ साथ वे एक सिद्धहस्त कवि एवं लेखक भी थे। फ़िर यह तो स्वाभाविक ही है की हिन्दी साहित्य के अध्यन में उनके समान परिपक्वता शायद ही कोई ओर शिक्षक रखता हो। उन दिनों मुझे हिन्दी में लेख लिखने में बहुत आनंद आता था। प्रतिदिन घर लौटकर मैं कभी कवितायें लिखता तो कभी अपने एक महान लेखक बन्ने के सपने देखता। थोड़ा ओर बड़ा हुआ तो महसूस हुआ की हिन्दी के क्षेत्र में जाना यूँ तो मुझे खूब लुभाता लेकिन जीवन के निर्वाह के लिये आवश्यक पैसे शायद न आ पाते। ओर फिर मैं बचपन से ही, ज़्यादा तो नही, लेकिन थोड़ा महत्वकांक्षी अवश्य था। केवल निर्वाह मात्र मेरा लक्ष्य होता तो मैं खुशी खुशी उसी क्षेत्र में पाँव जमाता परन्तु ज़्यादा पैसा कमाने की लालसा कब हिन्दी प्रेम को पीछे धकेल कर मेरे ऊपर सवार हो गई पता नही चला।

आज देश में हिन्दी की स्थिति को देखकर दुःख भी होता है, पछतावा भी। दुःख इसलिए क्योंकि जिस देश की मात्रभाषा का गौरव पाने पर यह भाषा कभी इतराती होगी, उसी देश का एक बड़ा वर्ग आज इस भाषा से बंधन छोड़ चुका है। इससे ज़्यादा पीधित करता है यह सच की एक बड़ा, साख ओर रसूख वाला, अखबारों ओर परदे पर चकाचौंध से पेश किया जाने वाले लोगो का समूह हिन्दी में अपनी विफलता के बारे में बताते हुए मन ही मन आनंदित हो उठता है, ओर एक बेशर्म हसी इस विफलता पर नाज़ होने का सबूत देती है। धीरे धीरे ये विचार लोगों के मन में घर करता जा रहा है की समाज के ऊंचे पायदानों में उठाना बैठना है तो हिन्दी से किनारा कर लेने में ही भलाई है। अपने ही देश में हिन्दी की यह दुर्गति अत्यन्त चिंताजनक है, पर इसके लिए जिम्मेदार भी हम ही हैं। डर इस बात का नहीं है की हिन्दी समाप्त हो जायेगी – वो इसलिए की करोडो हिन्दी बोलने वालों के लिए अन्य भाषाओ से अवगत होने का कोई साधन है ही नही; परन्तु इतना अवश्य है की अच्छे साहित्य से हिन्दी वंचित रह जायेगी, जिसकी वह एक समय जननी हुआ करती थी। अंग्रेजी में तो आज भी बहतरीन साहित्य लिखा जा रहा है, लेकिन पशचिमिकरण की होड़ में हिन्दी साहित्य ने एक गहरी चोट ली है। ऐसे में भारत को चाहिए की वे फ्रांस ओर रशिया जैसे देशो से सीख ले, जो आज के विश्व्यापी अंग्रेजीकरण के बावजूद अपने साहित्य को संभाले ही नही हुए, अपितु उसे रोज़ नई ऊंचाइयो तक ले जाने के लिए प्रयासरत हैं।

जाते जाते अपने पसंदीदा कवि रामधारी सिंघ ‘दिनकर’ की कुछ पंक्तियों के साथ आज्ञा लेता हूँ। संयोग ही है, कि यूँ तो ये पंक्तियाँ कर्ण (महाभारत) के मुख से प्रस्तुत की गई हैं, लेकिन अपनी जड़ो से अनजान आज के भ्रमित युवा-वर्ग की व्यथा भी ये खूब सुनाती हैं। शायद उन्हें आने वाले कल का आभास हो चुका था ॥

मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे ।
पूछेगा जग उनसे, किंतु, पिता का न नाम न बोल सकेंगे ,
इस निखिल विश्व में जिनका कहीं कोई अपना न होगा ,
दिल में लिए उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा ....